बुधवार, 27 अगस्त 2008

बाढ़ के बाद की पहचान

बिहार कमाऊ पूत नहीं है,..इसलिए देश का उपेक्षित बेटा है....यहां केवल आबादी है,..लफ्फाजी है,...पूंजी नहीं है,...इसलिए इसकी कोई कद्र नहीं....मीडिया में बिहारियों का बर्चस्व है,...पर उन पत्रकारों का पेट दूसरे प्रदेशों की कमाई से भरता है,...इसलिए कुछ पल शोक मनाने के सिवाय बाक़ी समय वे यथास्थितिवादी हो जाते हैं. बताते हैं बिहार फिर बाढ़ का क़हर झेल रहा है...बात यहीं ख़त्म. अगर बिहार हर साल बाढ़ की तबाही झेलने को अभिशप्त है,..तो क्या इसे उसकी नियति मान लिया जाय. क्या कोई रास्ता नहीं,...हालात को बदतर होने देने से बचाने का. क्या कुछ नहीं हो सकता....करोड़ों की आबादी की हर साल होने वाली बर्बादी को रोकने के लिए.

बिहार से पलायन करने वाले मज़दूरों के भार से देश के महानगर दबे जा रहे हैं. झुग्गियों में भी जगह नहीं,..उन्हें स्वीकारने की. पर कोई ये तस्दीक करना नहीं चाहता कि ये मज़दूर कौन हैं. ये गांव में रहकर खेती-किसानी कर कमाने वाले ज्यादातर उत्तर बिहार के वे लोग हैं. जिनकी बची-खुची कमाई को हर साल बाढ़ लील लेती है....खेतों में बालू छोड़ रोज़ी रोटी का रास्ता बंद कर देती है. टूटी सड़कों से मीलों चलकर रोज़ी रोटी का जुगाड़ करना उनके लिए दु:स्वप्न साबित होता है. गांव में महाजन तक नहीं जो कर्ज़ दे,...क्योंकि वसूली की कोई गारंटी नहीं. ऐसे में कुछ भी करने को अभिशप्त होते हैं ये बाढ़-पीड़ित. इनमें सीमांत किसानों से लेकर,...मज़दूर तक सभी होते हैं. कोई और चारा नहीं. घर परिवार को छोड़कर ये चले जाते हैं,..बहुत दूर,..गालियां खाने,...गोलियां खाने. जिल्लत की ज़िंदगी जीने,....हर जाती ट्रेन की जनरल बॉगी सितम्बर से भरी नज़र आती हैं.

इतनी बड़ी तबाही. राहत के कोई इंतज़ाम नहीं. अपने दम पर खड़े होने की चुनौती. सब कुछ सह जाते हैं जीवट के ये धनी लोग. पर आपने कभी नहीं सुना होगा कि बिहार में किसी किसान ने आत्महत्या की. सब कुछ सहेंगे पर प्रदेश पर ये कलंक नहीं. असम, मणिपुर में उल्फा, बोडो और कुकी उग्रवादियों के शिकार बनते हैं,...कश्मीर घाटी से सब कुछ छीनकर भगा दिए जाते हैं,...कभी पंजाब में लाइन में खड़े कर भून दिए जाते थे,....तो अब महाराष्ट्र से लतियाकर भगा दिए जाते हैं,....ये सब यही तो हैं.

थक हार कर बैठना मंज़ूर नहीं. इसलिए कहीं भी चले जाते हैं. कुछ भी कर लेते हैं. मिल जुल कर रह लेते हैं. नोयडा के किसी मोड़ पर प्लास्टिक तानकर पेड़ के नीचे किए गए छांव में मकुनी खाते ये लोग,...मिल बैठकर रोटी बनाते ये लोग,....भरी दुपहरी में जालीदार बनियान पहने,...पसीने से तर रिक्शा चलाते ये लोग,...बरसात में पॉलीथिन की टोपी बनाकर सड़क किनारे ख़ुद को बचाते ये लोग. कभी पहचानने की कोशिश करिए,..पता मिलेगा बिहार,...बिहार में उत्तर बिहार...सहरसा, मधेपुरा,...सुपौल, कटिहार, पूर्णिया,..यही है बाढ़ पीड़ितों की बर्बादी के बाद की पहचान.
आज चर्चा शुरू हुई है,..जब कोसी ने धारा बदल दी. जब सब कुछ उजड़ गया...राष्ट्रपति ने भी मुख्यमंत्री को फोन किया...संवेदना जताई....पर सच्चाई ये है कि इनकी याद फिर कभी नहीं आएगी. आज सब संवेदना जता रहे हैं,....पर दिल्ली की सड़कों पर कुछ महीने बाद रिक्शा चलाते इन चेहरों को कोई नहीं पहचान पाएगा.

2 टिप्‍पणियां:

अनिल कुमार वर्मा ने कहा…

अमित जी, ब्लाग की दुनिया में आपका स्वागत है। बाढ़ का कहर झेलते बिहार के जिन जीवट वाले लोगों की तस्वीर आपने खींची उसने अंतर्मन को छू लिया। सच ही कहा आपने विपरीत परिस्थितियों में भी जिन्दगी को जीने का जज्बा बिहार के उन लोगों को भीड़ से अलग खड़ा करता है जो हालात के आगे घुटने टेक जिन्दगी से हार मान लेते हैं। ये भी ठीक है कि कोसी के कहर से आज नहीं तो कल ये लोग अपने हौंसले के दम पर पार पा ही लेंगे लेकिन दुखद ये है कि इनके बारे में चर्चा आज तो हो रही है लेकिन वक्त बीतने के साथ नहीं होगी। एक अच्छे लेख के लिए आपको बधाई।

Satyajeetprakash ने कहा…

अमित भाई,
सेटिंग्स में जाकर, वेरीफिकेशन का झंझट हटा दीजिए.